कामिनी की कामुक गाथा (भाग 50)

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अबतक आपलोगों ने पढ़ा कि किस तरह मेरे और मेरे बेटे के मध्य संबंध, शारीरक संबंध तक पहुंच गया। मेरे बेटे की मुझ पर इतनी आसक्ति थी कि वह किसी और स्त्री की तरफ देखना भी गंवारा नहीं करता था। इसी बात से मैं चिंतित थी। मैं वासना की भूखी, आजाद पंछी थी, मेरे लिए किसी एक पुरुष से बंध कर रहना बेहद कष्टकर था। मैंने किसी तरह क्षितिज को अन्य स्त्रियों की ओर ध्यान देने के लिए मना लिया। मेरी नजर रेखा सिन्हा पर केन्द्रित हो गयी। वह बिल्कुल उपयुक्त थी इस कार्य के लिए। उससे मेरा परिचय उनके पति आलोक सिन्हा जी के माध्यम से हुआ था। आलोक सिन्हा जी परस्त्रियों पर लार टपकाने वाले रंगीली तबियत के मालिक थे। एक दिन संयोग से मैं उनके रंगीन स्वभाव की शिकार हो गयी। शिकार क्या हुई, मैं खुद ही जानबूझ कर उन के हत्थे चढ़ी। संयोग, परिस्थिति, उनकी रंगीन मिजाजी और मेरी वासना की भूख, इन सबका परिणाम था कि मैं चुद गयी उनसे। उसके बाद यह सिलसिला चल निकला हम दोनों मिलते रहे, मौज करते रहे, जब मौका मिलता भिड़ जाते थे वासना के खेल में और एक दूसरे की शारीरिक भूख मिटा लिया करते थे। वे कमीने थे तो मैं भी एक नंबर की कमीनी चुदक्कड़ थी। इसी क्रम में एक दूसरे के घर आने जाने का सिलसिला शुरू हुआ। इसी क्रम में रेखा से मेरा परिचय हुआ। परिचय क्या हुआ घुल मिल गये एक दूसरे से और आपस में सहेलियां बन गये थे। उसे सिन्हा जी के साथ मेरे अंतरंग रिश्ते के बारे में पता ही नहीं था। वह अपने काले रंग के कारण पति से उपेक्षा का दंश झेलती पत्नी की भूमिका निभाए जा रही थी, हालांकि उसका चेहरा मोहरा, शारीरिक गठन काफी आकर्षक था। इतना तो निश्चित था कि अपने पति की उपेक्षा के कारण उसे पति के प्यार और शारीरिक सुख से वंचित रहना पड़ रहा था। उसके हाव भाव और बातों में यह झलकता भी था। इसी कारण मेरे लिए उसका शिकार करना बेहद आसान था। उसकी एक बेटी थी जो हॉस्टेल में रह कर कॉलेज की पढ़ाई कर रही थी। यह संयोग ही था कि सिन्हा जी भी एक हफ्ते के ऑफिशियल टूर में थे। स्वर्णिम अवसर था मेरे लिए।

क्षितिज के घर आने के अवसर पर मैंने तीन दिन की छुट्टी ले रखी थी। अभी यह दूसरा दिन था। दूसरे दिन हम दोनों मां बेटे रात भर रंगरेलियां मनाते रहे। तीसरे दिन मैं अपने पूर्व नियोजित योजनानुसार ठीक रेखा के दफ्तर से छुट्टी के समय उसके दफ्तर के सामने अपनी कार खड़ी कर उसका इंतजार कर रही थी। संध्या चार बजे ज्योंही रेखा दफ्तर से बाहर निकली, और सामने ऑटो स्टैंड की ओर बढ़ी, तभी मैंने उसे आवाज दी।

“अरे रेखा!”

“अरे कामिनी!”

“क्या घर चल रही हो?”

“हां”

“तो आओ ना मेरी कार में, मैं भी घर ही चल रही हूं। ऑफिस में कुछ काम था, हो गया, लौट रही थी तो तुम्हें देख लिया।”

“ओह थैंक गॉड, मैं तो ऑटो देख रही थी।” वह सामने की सीट पर बैठी और हम चल पड़े।

“और सुनाओ, क्या हाल है?”

“हाल क्या रहेगा, वही, घर से ऑफिस और ऑफिस से घर। अभी घर पहुंच के घर का काम। गनीमत है कि सिन्हा जी टूर पर हैं, नहीं तो फिर वही रोज की चखचख” तनिक उदासी की छाया थी उसके चेहरे पर।

“अरे ऐसी ही है हम औरतों की लाईफ, ऑफिस का काम देखो, घर का काम देखो, जुते रहो। अब मुझे ही ले लो, क्षितिज छुट्टी में आया हुआ है और उसके चक्कर में मैं तीन दिनों की छुट्टी ले कर घर बाहर के कामों में ही उलझी हुई हूं।” “ओह, क्षितिज आया हुआ है? क्या हाल है उसका? कितने दिन की छुट्टी है?”

“एक हफ्ते की छुट्टी है। घाटशिला भी जाना है उसे, नाना नानी से मिलने, एक दो दिन रह कर आ जाएगा।”

इसी तरह बातें करते करते हम घर पहुंच गये। मैंने कार अपने घर की गेट के अंद घुसा दिया।

“अरे यह तुम अपने घर क्यों ले आई?”

“आ भी जाओ भई, चाय पीकर चली जाना, वैसे भी अकेली ही तो हो, कौन सी जल्दी है।”

“ओके बाबा, लेकिन जल्दी जाऊंगी, बहुत सारा काम पड़ा है घर में।”

“चली जाना, चली जाना, थोड़ी सांस तो ले लो। घर कहाँ भागा जा रहा है।” कॉलबेल बजाते ही हरिया ने दरवाजा खोला।

मेरे साथ रेखा को देख कर मुस्कुरा कर बोला, “अरे रेखा बिटिया कैसी हो?” पचहत्तर साल का बूढ़ा, इस उम्र में भी पराई स्त्रियों पर लार टपकाता रहता था हरामी। करीब पांच साल पहले तो बुढ़ापे की असमर्थता के कारण चोदना बंद किया था उसने और करीम चाचा नें मुझे, वरना मुझे चोदे बिना उनको चैन ही कहां मिलता था। धीरे धीरे उनकी चोदने की क्षमता घटती गयी और खीझ कर मैं ने ही उन्हें मना करना शुरू कर दिया था। खाली पीली मुझे गरम कर देते और आनन फानन झड़ कर मुझे बीच मझधार में तड़पती छोड़ देते थे कमीने। मेरे द्वारा घास नहीं डालने के बावजूद दूसरी औरतों पर नजरें गड़ाए रहते थे, मौका पाकर अभी भी यहां वहां मुह मारने से बाज नहीं आते थे दोनों। भाड़ में जाएं दोनों, मैंने उन्हें रोकना टोकना भी बंद कर दिया था। रेखा को देख कर वैसी ही मुस्कान थी हरिया के चेहरे पर।

“ठीक हूं अंकल” कहते हुए मेरे साथ अंदर आ गयी।

तभी क्षितिज बैठक में आ गया। “आ गयी मॉम? ओह नमस्ते आंटी।” मैंने आंखों के इशारे से उसे जता दिया कि यही है शिकार। समझ गया वह। “सो्ओ्ओ्ओ्ओ्ओ ब्यूटिफुल, यू आर लुकिंग ग्रेट आंटी। सो्ओ्ओ्ओ्ओ्ओ हॉ्हॉ्हॉट।” रेखा के लिए उसके प्रशंसात्मक शब्द थे और वैसा ही भाव चेहरे पर भी था। सिर्फ बरामूडा और टी शर्ट में था वह, चमक रहा था, खूबसूरत तो था ही। एकाएक उसकी खिलती जवानी और खूबसूरती को देखकर चमत्कृत रह गयी रेखा। उसके शब्दों और हाव भाव की ताब न ला सकी वह।

“चल हट, बड़ा शैतान हो गया है। अपनी आंटी को भी छेड़ने से बाज नहीं आ रहा है बदमाश।” रेखा तनिक शरमा गयी।

“कसम से आंटी, गजब की खूबसूरत हो गयी हैं आप तो। साल भर पहले तो आप ऐसी नहीं थीं। उमर के साथ आपकी खूबसूरती तो निखरती ही जा रही है।”

“हट बदमाश, मारूंगी हां।” लरज उठी रेखा।

“चल अब रेखा को छेड़ना बंद कर क्षितू। शुरू हो गया तू? इंजीनियरिंग कॉलेज जा कर बहुत बात बनाना सीख गया है,” क्षितिज से बोली मैं, फिर रेखा की ओर मुखातिब हो कर बोली, “लेकिन सच ही कहा क्षितिज नें, तू सच मे बेहद खूबसूरत है।”

“ले अब तू भी शुरु हो गयी।” काले रंग के बावजूद चेहरा उसका लाज से सुर्ख हो उठा। उसकी खूबसूरती और निखर गयी उस हालत में।

“अच्छा छोड़ इन सब बातों को और चल पहले हाथ मुंह धो कर फ्रेश हो जा, तबतक चाय आ जाएगी।” कहते हुए मैं उसका हाथ पकड़ कर मेरे बेडरूम में ले आई। क्षितिज वहीं बैठक में रुक गया। रेखा ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। हम दोनों फ्रेश हो कर मेरे बेड पर ही बैठ गये।

“वाऊ रेखा तू तो सचमुच दिन ब दिन और जवान होती जा रही हो।” मैंने उसके तरोताजा चेहरे को प्रशंसात्मक दृष्टि से देखते हुए कहा।

“हट, जवान काहे की, बेकार की बात मत कर।”

“सच कहती हूं, सूरत तो सूरत, तेरी फिगर देख कर तो मुझे जलन होती है।”

“अब तू भी लगी मुझे चिढ़ाने।”

“कसम से, सिन्हा जी तो बड़े किस्मत वाले हैं।”

“फिर बकवास। मुझ काली कलूटी से शादी करके तो वे पछता रहे हैं।” उदासी छा गयी उसके चेहरे पर।

“कैसे आदमी हैं वे? इतनी खूबसूरत पत्नी को पाकर भी कोई पछताता है क्या? तुम काली हो तो क्या हुआ, मुझसे पूछो, कितनी खूबसूरत हो तुम।”

“तुम्हारे मानने से क्या होता है।”

“झूठ नहीं बोल रही हूं मैं। मैं तो फिदा हूं तेरी खूबसूरती पर। काश मैं मर्द होती।”

“मर्द होती तो?”

“इतना प्यार करती, इतना प्यार करती कि…” कहते कहते मैंने उसे बांहों में दबोच लिया और भरपूर चुंबन उसके होंठों पर अंकित कर दिया।

“हट शैतान।” छिटक कर अलग होना चाहती थी वह किंतु मेरी पकड़ काफी मजबूत थी।

“कसम से सच कह रही हूं मैं। यू आर लुकिंग सो््ओओ ब्यूटीफुल, सो्ओ्ओ्ओ्ओ्ओ सेक्सी।” मैं उसे बांहों में भर कर तड़ातड़ उसके होंठों, गालों, आंखों को बेहताशा चूमने लगी। वह छटपटा रही थी लेकिन उसकी सांसें धौंकनी की तरह चल रही थी।

“अरे यह क्या कर रही हो छोड़ो मुझे।” वह छूटने के लिए छटपटा रही थी मगर मेरी शक्ति के आगे बेबस थी। मैं उस पर हावी होती जा रही थी। मेरे चुंबनों से लगता है वह कमजोर होती जा रही थी। उसका विरोध धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगा। उसके विरोध की परवाह किए बगैर मैं ने उसे बिस्तर पर गिरा दिया और उधर मैं अपने चुंबनों से उसे बेहाल करती जा रही थी और इधर मेरा हाथ उसके वक्षस्थल पर रेंगने लगा। उसकी आंखें अधमुंदी हो गयीं। “ओह्ह्ह्ह्ह्ह मां्म्म्आ्आ्आ्आ्आ, ककककक्य्य्य््आ्आ कर रही हो आ्आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह।” वह बुदबुदा रही थी। मैं खेली खायी वासना की पुतली, सब जानती थी कि स्त्री को वश में कैसे किया जाता है और खास कर रेखा जैसी अतृप्त, पति द्वारा उपेक्षिता स्त्री को वश में करना तो मेरे बांये हाथ का खेल था। उसके कामोत्तेजक अंगों से खेलते हुए मैं उसे मदहोश करना चाहती थी, उसकी कामाग्नि को भड़काना चाहती थी ताकि उसके अंदर दबी हुई वासना की चिंगारी ज्वालामुखी का रूप ले ले, जिसके वशीभूत वह नि:संकोच समर्पण को वाध्य हो जाय और क्षितिज के लिए शिकार करना सरल हो जाय, और मैं देख रही थी कि मेरा प्रयास रंग ला रहा था।

“उफ्फ्फ आह्ह्ह्, ककक्या्आ्आ ककककररररर रही हो तुम आह छछछछोड़ो आह।”

“करने दो रेखा ओह मेरी जान करने दो उफ्फ्फ तेरी खूबसूरती मुझे हमेशा आकर्षित करती रहती है, मुझे प्यार करने दे।”

“ननननहींईंईंईंईं, ओह नननननहींहींईंईंईं, तू औरत है पगली, ऐसे कोई औरत किसी औरत से कहीं प्यार करती है भला।”

“चुप कर, बस अब कुछ न बोल मेरी जान। करने दे मुझे, प्यार करने दे तेरे इस जिस्म को ओह्ह्ह्ह्ह्ह कितनी सख्त है तेरी चूचियां आह्ह्ह्।” उसके उरोजों को दबाती हुई कामोत्तेजक स्वर में बोली मैं। उसकी साड़ी के पल्लू को एक तरफ खिसका कर ब्लाऊज खोलने लगी।

“यह क्ककककक्या कर रही हो?” उसकी सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं। मैं रुकी नहीं, चूमती रही, ब्लाऊज खोल कर ब्रा के ऊपर से ही उसकी चूचियां दबाने लगी। रहा नहीं जा रहा था मुझसे, खुद मैं भी उत्तेजित हो रही थी। बेसब्री में उसके ब्रा को भी खोल दिया मैंने। उफ्फ, कितनी बड़ी बड़ी चूचियां थी उसकी। कैसी कसी हुई सख्त चूचियां थीं उसकी। रहा नहीं गया तो मैं मुह लगा बैठी उसकी काली काली चिकनी गठी हुई चूचियों पर और लगी चूसने पागलों की तरह।

“आह्ह्ह् ओह्ह्ह्ह्ह्ह ओह मां्म्म्आ्आ्आ्आ्आ, पागल कहीं की उफ्फ्फ, मुझे भी पागल कर रही हो आह्ह्ह्।”

“हां मैं पागल हो गयी हूं। तू भी पागल हो जा। मैं विधवा, प्यार की भूखी, तू उपेक्षा की मारी प्यार की भूखी, मुझे प्यार करने दे पगली, उफ मेरी जान, जैसा तेरा चेहरा, वैसा तेरा तन और वैसी ही तेरी चूचियां।” चूसती जा रही थी उसकी विशाल गोल गोल चूचियां, चुभलाने लगी मैं खड़ी हो चुकी उसके चचुक। उत्तेजना के मारे अकड़ने लगी वह।

“आ्आ्आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह, ओ्ओ्ओह्ह्ह्,” वह सिसक रही थी। मैं अब उसकी साड़ी के अंदर हाथ डाल चुकी थी। सीधे उसकी पैंटी के ऊपर ही से उसकी योनि का स्पर्श करने लगी। सहलाने लगी। चिहुंक उठी वह ,”उई मां्म्म्आ्आ्आ्आ्आ, हाय।” पैंटी गीली हो चुकी थी उसकी। चिहुँक जरूर उठी थी वह मगर विरोध करना छोड़ दिया था अब उसने। आनंदित हो रही थी मेरी हरकतों से।

“अब उतार भी दे अपने पूरे कपड़े रेखा डार्लिंग, उफ अब रहा नहीं जा रहा मुझसे। तेरे नंगे बदन की खूबसूरती देखने के लिए मरी जा रही हूं। तेरे नंगे जिस्म से प्यार करने को तड़प रही हूं मैं।” बोलते हुए उसके किसी उत्तर या प्रतिक्रिया का इंतजार किए बगैर मैं ने उसे पूरी तरह नंगी कर दिया।

“उफ्फ्फ पगली क्या कर दिया बेशरम, हाय औरत होकर मुझ औरत को नंगी कर के भला कैसे प्यार करोगी पागल। इस्स्स्स्स्स रे ऐसे तो मर्द करते हैं आह्ह्ह् भगवान” जल बिन मछली की तरह तड़प रही थी वह। किसी कुशल शिल्पी के द्वारा तराशी गयी मूरत की तरह उसकी काया नें मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। कमर में कोई बल नहीं था। चरबी का नामोनिशान नहीं था न ही उसके उसके पेट पर न ही कमर में। काली होने के बावजूद चमचमाती उसकी जंघाएँ और चिकने पांव, उफ्फ्फ भगवान ने बड़ी फुरसत से बनाया था उसे। पता नहीं कितने सालों से नहीं चुदी थी, काली होने के बावजूद दपदपा रही थी उसकी योनि किसी 20 – 21 साल की लौंडिया की तरह। पति द्वारा उपेक्षा के फलस्वरूप योनि के रख रखाव का ध्यान नहीं रखने के कारण योनि के ऊपर बेतरतीब घुंघराले झांट अलग ही छटा बिखेर रहे थे। कुछ पलों के लिए तो अपलक देखती रह गयी मैं। फिर अचानक ही मानो मेरी तंद्रा भंग हुई, टूट पड़ी मैं उसपर, पांवों से चूमते हुए उसकी जंघाओं तक पहुची, फिर जंघाओं से होते हुए दप दप करती चिकनी काली चूत पर। थरथरा रही थी वह, कांप रही थी जैसे बुखार चढ़ गया हो। जैसे ही मेरे होंठों का स्पर्श उसकी योनि पर हुआ, “उई्ई्ई्ई्ई्ई अम्म्म्म्आ्आ्आ्आ्आ,” सिसकारी निकल पड़ी उसकी, छटपटा उठी वह। “आह आग लगा दिया पगली तूने मेरे तन में ओह मां।” अब मैंने उसकी योनि पर अपना ध्यान केंद्रित किया। चूमते चूमत अब चाटने लगी मैं। मेरे दोनों हाथ उसके सख्त उरोजों से खेलने और मसलने में व्यस्त थे। इधर उसकी चूत से झांकता लाल लाल योनिद्वार और रक्तिम उभरा हुआ भगांकुर। पागलों की तरह चाटने लगी, चूसने लगी उसके भगांकुर को। थरथराने लगी वह और “आह््हहँ्ँ्हँ्हँ्हँ्हँइ्ई्ई्ई्ई्ईस्स्स्स्स् अम्म्म्म

म्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्,” एक दीर्घ विश्वास उसके मुख से निकला, स्खलन था वह उसका, पता नहीं कितने सालों बाद, स्वर्गीय स्खलन के सुख में डूबी, मेरे सर को अपनी दोनों जंघाओं से कस लिया और झड़ने लगी। उसकी योनि से निकलते प्रोटीनयुक्त रस को पी गयी मैं। करीब दो मिनट तक उसी स्थिति में रहे हम और रेखा निढाल हो गयी, पैर पसार कर।

जैसे ही वह दीर्घ निश्वास के साथ निढाल हुई और उसकी जंघाओं के बंधन से मुक्त हुई मैं, मेरी सांस में सांस आई और मैं बोली, “उफ्फ्फ, जान ही निकाल दिया था तूने तो।”

इसके आगे की घटना अगली कड़ी में ले कर आऊंगी। तबतक के लिए मुझे आज्ञा दीजिए। आपलोगों के प्रतिक्रिया की अकांक्षी।

रजनी।

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