कामिनी की कामुक गाथा (भाग 78)

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पिछली कड़ी में आपलोगों नें पढ़ा कि किस तरह अपने निर्माणाधीन भवन में कार्यरत एक पचास पचपन की उम्र के एक दुबले पतले, काले दढ़ियल बढ़ई से मैंने अपनी कामाग्नि शांत की। एक निहायत ही अनाकर्षक व्यक्ति था वह। गंदा था वह। खिचड़ी दाढ़ी थी उसकी और खिचड़ी लंबे बाल। पता नहीं कितने दिनों से नहाया नहीं था, बदबूदार व्यक्ति। पसीने की बदबू से भरे उस बदशक्ल, कृशकाय, किंतु अद्भुत शक्तिशाली शरीर के स्वामी को अपनी कमनीय देह अर्पित कर बैठी। उसके अविश्वसनीय भयावह लिंग से अपनी योनि की दुर्दशा करा बैठी। जितना बड़ा पाशविक लिंग था उसका, उतनी ही पाशविकता थी उसके संभोग में। आरंभ में तो सचमुच मैं आतंकित हो उठी थी। असहनीय पीड़ा सहती हुई बड़ी हिम्मत से उसके लिंग को ग्रहण किया। समा लिया, समा क्या लिया, ठूंसा था उसनें बड़ी बेरहमी से, और मेरी योनि फटती चली गयी, फैलती चली गयी, रुका सीधे मेरे गर्भ में घुसा कर। लेकिन एक बार लिंग घुसने की देर थी, फिर तो मैं खुद ही मस्ती में भर कर, अपनी कमर उछाल उछाल कर खाती चली गयी, मजे लेती चली गई। उस गंदे फर्श पर, लकड़ी के बुरादे पर लोटपोट होती, उस गंदे जंगली आदमी के साथ गुत्थमगुत्था होती रही। पूरी तरह नुच भिंच कर बेहाल अवस्था में जब मैं वहां से निकल रही थी तो मेरे कदम साथ नहीं दे रहे थे। थरथरा रही थी, लड़खड़ा रही थी। योनि की तो चटनी बन चुकी थी। यौनगुहा का दरवाजा बन चुका था।

जब मैं वहां से निकल कर घर की ओर बढ़ रही थी तो सारे मजदूर अजीब सी नजरों से मुझे घूर रहे थे। शायद उन्हें आभास हो चुका था कि अंदर मेरे साथ क्या हुआ था। लेकिन कौन था वह खुशनसीब, जिसनें मेरी यह हालत की थी? यह रहस्य था, लेकिन कब तक? कुछ ही देर में सबको पता चल ही जाना था। वही हुआ भी। इधर मैं अपने कमरे में दाखिल हो कर सीधे बाथरूम में घुसी। रगड़ रगड़ कर नहाई, लेकिन दर्पण में खुद को देख कर बड़ी कोफ्त हुई। गालों पर, होंठों पर, गले पर, स्तनों पर लाल लाल निशान उस हरामी बढ़ई की दरिंदगी चीख चीख कर बयां कर रहे थे। योनि तो सूज कर पावरोटी बन गयी थी। मैं खुद ही चकित थी कि यह सब इतना अचानक मेरे साथ कैसे हो गया। एक ऐसे अनाकर्षक गंदे आदमी से, जिस आदमी से पहले कभी मेरी बात तक नहीं हुई थी, किसी अबूझ सम्मोहन में बंधी यह सब कर बैठी, वह भी इतनी खामोशी के साथ। बेआवाज लुटती रही। ताज्जुब हो रहा था मुझे। अभी नहाने के बाद जैसे मैैं पूर्ण चेेेतन अवस्था मेें आई। ऐसा लगा मानो जो कुछ हुआ वह सब मेरे अर्धचेतन अवस्था मेेंं हुुुआ हो। खैर एक मीठी सी कसक तो भर गयी ही था मेेेरे तन मेें। नहा धो कर मैंने एक चमत्कारी लोशन अपने जख्मों पर लगाया, जिससे मुझे काफी राहत मिली। दो दिनों बाद उन निशानों से मुझे निजात मिली।

दूसरे ही दिन जब मैं ऑफिस के लिए निकल रही थी कि गेट के पास सलीम मिल गया। वह बड़े ही अर्थपूर्ण दृष्टि से मुझे घूरता हुआ धूर्तता से मुस्कुरा रहा था।

मैं उससे नजरें मिलाए बगैर बगल से निकल ही रही थी कि उसकी आवाज मेरे कानों से टकराई, “मैडम, ओह सॉरी, चांदनी, ओह नहीं नहीं चोदनी, कैसा रहा कल कोंदा का?”

थमक कर रुक गयी, “ककककौन कोंदा?”

“वही, गूंगा बढ़ई?”

“ओओओह, वह बबबबढ़ई?” तो पता चल गया इन सबको भी।

“हां हां वही।”

“गूंगा है?” चकित थी मैं। तो एक गूंगे से चुद गयी थी मैं।

“हां। गूंगा है कोंदा। मगर लंड तो है बड़ा मजेदार ना।”

“हट।” लाल हो गयी मैं।

“हट क्या? हम तो तेरी चाल देख कर ही समझ गये थे।” अबतक बोदरा भी पहुंच चुका था।

“फाड़ तो नहीं दिया ना?” बोदरा मुस्कान के साथ शरारत से बोला। हरामी कहीं का। बेशर्म। सवेरे सवेरे ये लोग मेरी खिंचाई कर रहे थे।

“चुप साले मां के ….।” मैं भी कम थोड़ी थी। अपने को कमजोर कैसे दिखाती।

“लो हम तो चुप हो गये, लेकिन तेरी चाल तो बोल रही है।” मैं सवेरे सवेरे उनसे उलझना नहीं चाहती थी। जल्दी से खिसक ली। वे दोनों मेरे पीछे खिलखिला कर हंस पड़े। भाड़ में जाओ तुम दोनों कुत्तों, मन ही मन खीझती हुई ऑफिस रवाना हो गयी। तो इसका मतलब कल जिस खड़ूस नें मुझे भोगा वह गूंगा है। ओह्ह्ह्ह्ह्ह, तभी वह कुछ बोल नहीं रहा था। नाम भी वैसा ही, कोंदा, यहां के आदिवासी लोग कोंदा गूंगे को बोलते हैं। मैं भी गूंगी बनी एक गूंगे से अपना शरीर लुटवाती रही, बड़े आनंदपूर्वक। कहां तो एक गरीब, गंदे, कुरूप बढ़ई को शायद ही कोई औरत उपलब्ध होती होगी या कोई उसे भाव ही नहीं देती होगी और कहां कल्पनातीत तरीके से एक सुखद, स्वर्णिम अवसर ऊपरवाले नें उसे प्रदान किया, मुझ जैसी खूबसूरत औरत को उसकी झोली में डालकर। मौका मिला और लपक लिया उस मौके को और क्या खूब लपका। शायद पहली बार, या फिर लंबे अरसे से दबी अपने अंदर की काम क्षुधा मिटाने टूट पड़ा मुझ पर। उसे तो शायद पता ही न था कि भगवान नें उसे इतने भीमकाय लिंग के रूप में किस अनमोल वरदान से नवाजा है। मुझ जैसी किसी मर्दखोर औरत के लिए तो ऐसा दुर्लभ लिंगधारी पुरुष किसी अनमोल वरदान से कम नहीं था। एक तो ऐसा मनभावन लिंग, ऊपर से उसकी दीर्घ स्तंभन क्षमता, मैं तो कायल हो गयी, पीड़ा हुई तो क्या हुआ, अविस्मरणीय था वह संभोग। फिर तो निर्बाध, निर्विघ्न, निर्द्वंद्व जुड़ते गये हमारे भवन निर्माण से जुड़े सारे लोग, मजदूर, मिस्त्री, ठेकेदार, बढ़ई, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, मेरे शरीर का उपभोग करने वालों की फेहरिस्त में। मैं भी सबको उदारतापूर्वक अपने तन का रसास्वादन कराती अपनी वासनापूर्ती करती रही, पूर्ण बेशर्मी के साथ, हर सुखद पलों में मुदित।

अब नये भवन के निर्माण का कार्य अपने अंतिम चरण में था। इसी दौरान एक दिन जब मैं ऑफिस से घर लौट रही थी, तो सिन्हा जी के घर के सामने से निकल ही रही थी कि मैंने रेखा (सिन्हा जी की पत्नी) को देखा। वह एक सुंदर से करीब अठारह वर्षीय युवक के साथ थी। उस युवक को मैं पहली बार इस मुहल्ले में देख रही थी। अच्छी खासी कदकाठी वाला गोरा चिट्टा, तीखे नाक नक्श, घुंघराले बालों वाला, चढ़ती उम्र का आकर्षक युवक था वह। रेखा से मिलने की उतनी उत्कंठा नहीं थी, किंतु उस आकर्षक युवक के आकर्षण नें मुझे हठात रुकने को वाध्य कर दिया। वे दोनों अपने गेट में घुस ही रहे थे कि मैंने आवाज दी,

“अरी रेखा।”

ठमक कर रुक गयी वह और मुझे देखकर खिल पड़ी, “अरे कामिनी दी।”

“क्या रेखा, तुम तो हमारे घर का रास्ता ही भूल गयी।” मैं शिकायत भरे लहजे में बोली।

“भूली कहाँ हूं, आती तो हूं।”

“मगर मुझसे मुलाकात कहां होती है? ओह समझी…”

“क्या?…..”

“बोलूं?….” मैं जान गयी कि यह मेरी अनुपस्थिति में हमारे घर अपनी तन की तृष्णा की तृप्ति हेतु आती होगी। भला अपने पति की अवहेलना से पीड़ित, अपनी प्यासे तन की कामक्षुधा की तृप्ति हेतु मेरे सुझाए सुलभ मार्ग को छोड़ जाती भी कहां। वैसे भी इसे चस्का भी तो लग गया था। हमारे यहां तीन तीन सुलभ औरतखोर मौजूद जो थे।

“न न न न…” वह घबरा कर उस युवक की ओर कनखियों से देखते हुए बोल उठी।

“ओह, ये जवान है कौन?” मैं उस युवक की ओर देखती हुई पूछी।

“यह मेरा बेटा पंकज है। कॉलेज में तीन दिन की छुट्टियां हैं, सो चला आया।”

“वाऊ, बड़ा खूबसूरत बेटा पाया है तूने तो। बिल्कुल पिता पर गया है। कहां पढ़ता है?”

“कोलकाता, संत जेवियर्स कॉलेज में। पंकज, ये हैं कामिनी आंटी।”

“नमस्ते आंटी।” पंकज मुझे गहरी नजरों से देखते हुए बोला। मैं लरज उठी। पता नहीं उसकी आंखों में क्या था, मैं सनसना उठी। कहां वह अठारह वर्ष का उभरता युवक, और कहां मैं चालीस पार की अधेड़ महिला, फिर भी उसके लिए मेरे मन में एक कुत्सित आकांक्षा जागृत हो उठी थी। आखिर ठहरी कामुक गुड़िया कामिनी।

“खुश रहो बेटा।” कह तो दी बेटा, लेकिन जो औरत अपने बेटे संग हमबिस्तर होने में गुरेज न करे, उसे इस पराये बेटे से परहेज क्यों हो भला। एक नजर में ही रच बस गया था यह मेरे मन मस्तिष्क में। इसकी अंकशायिनी बनने को ललायित हो उठी। नीली जींस और गोल गले के पीले टी शर्ट में कामदेव का अवतार लग रहा था यह। देखो तो जरा मुझे, क्या हो रहा था मुझे, स्तन फड़फड़ा उठे, चुचुक तन गये, योनि रसीली हो उठी, पैंटी के अंदर फकफका उठी। उसकी आंखें भी तो चमक उठी थीं मुझे देख कर। सर से पांव तक उसकी दृष्टि नें मानो मुझे नाप लिया। इस दृष्टि में छिपे अर्थ को समझना मेरे जैसी मर्दखोर औरत के लिए कोई मुश्किल नहीं था, किंतु आश्चर्य हो रहा था मुझे कि इस उम्र में ही उसके अंदर यह सब कहां से आया। क्या यह स्त्री संसर्ग के आनंद से परिचित था? उम्र का तकाजा तो था, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण स्वभाविक था, किंतु जो कुछ मैं समझ पा रही थी वह तनिक चकित करने वाला था। उसकी नजरों में हवस थी, जो सामान्यत: मुझे औरतखोर मर्दों की नजरों में दिखती थी। मेरी नजर अनायास उसके जीन्स के अग्रभाग पर पड़ी, गनगना उठी यह देखकर कि वहां का उभार असामान्य रुप से वृहद था।

“कब आए बेटा?” लरजती आवाज को नियंत्रित करते हुए बोली। बेटा कहते हुए मेरी जुबान लड़खड़ा उठी थी।

“अभी ही तो।” सुनकर मन प्रसन्न हो उठा। मतलब पूरे तीन दिन। मन में कुटिल योजना का सृजन होने लगा। उसकी सशक्त भुजाओं के आगोश में समाने की कामना तीव्र हो उठी। उसकी भाव भंगिमाओं से अहसास हो रहा था यह कार्य अधिक मुश्किल होने वाला नहीं था। अब वह इस खेल में कितना माहिर है यह तो पता नहीं लेकिन इतना तो पता चल ही रहा था कि यह नारी तन का स्वाद चख चुका है। तभी तो मुझ जैसी चालीस पार की स्त्री पर भी लार टपका रहा था।

“रेखा, यह गलत बात है।” मैं रेखा से मुखातिब हुई।

“क्या गलत?” रेखा बोली।

“अरे बेटा आया है, तो मेरे यहां लेकर क्यों नहीं आई?” मैं शिकायत भरे लहजे में बोली।

“अभी ही तो आ रहा है। घर भी नहीं घुसा है।”

“तो एक काम करो ना, शाम को आ जाओ हमारे यहां।”

“देखती हूं।”

“देखती हूं नहीं, आना ही होगा।”

“चलते हैं न मॉम, शाम को, ऑंटी के यहां।” पंकज रेखा से बोला। वह बड़ी ललचाई नजरों से मुझे घूर रहा था।

“ओके बाबा ओके, चलेंगे चलेंगे।”

“दैट्स लाईक अ ग्रेट मॉम। ओके आंटी आते हैं शाम को।” कहते कहते उसने अपने जीन्स के सामने के फूले हिस्से को सहला दिया। हाय, कितना बेशर्म है यह तो। मैं भौंचक्की रह गयी। इस उम्र में ही ऐसा? जरा भी शर्म नहीं थी। अगर कोई और औरत होती तो अवश्य मार खाता। निश्चित ही यह सबके सामने तो ऐसा बिल्कुल नहीं करता होगा। फिर मेरे सामने? तो इसे मुझमें ऐसा क्या दिखा? इसे ऐसा क्यों लगा कि मैं उसकी ऐसी ओछी हरकत पर कुछ बोलूंगी नहीं? क्या इसे औरतों की पहचान है? कमाल है, इसी उम्र में! समझ गयी, इस उम्र में ही बिगड़ गया है यह। अब तो और आसान था इसकी अंकशायिनी बनना।

“आना जरूर, इंतजार करूंगी।” कहते समय मैं पंकज से नजरें मिला नहीं सकी।उसकी नजरों की ताब न ला सकी। कैसी भूखी नजरों से घूर रहा था मानों खा ही जाएगा।

“अब इतना बोल रही हो तो मना कैसे कर सकती हूं भला। आऊंगी, पंकज के साथ।” रेखा बोली। मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। देखना था पंकज कितने पानी में है। हाव भाव तो मेरे मनमाफिक ही था, एकदम औरतखोर जैसा। मैं अधीर हो रही थी शाम के मुलाकात के लिए। किसी प्रकार स्वयं को संयत कर आगे बढ़ गयी। अब इंतजार था शाम का।

घर पहुंच कर मैंने देखा, दो तीन लोग ही दिखे काम करते हुए। प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन और दास बाबू। गूंगा बढ़ई लगता है भीतर कुछ काम कर रहा था। मैं उन सबको नजरअंदाज करते हुए अंदर की ओर बढ़ ही रही थी कि ठेकेदार दास बाबू की आवाज आई, “मैडम।” मेरे पांव जहां के तहां जम गये।

“हां दास बाबू, बोलिए।”

“आप तो हमें भूल ही गयीं।”

“नहीं तो।”

“फिर ऐसी बेरुखी, अपने कद्रदानों से?” कामुकतापूर्ण ढंग होंठ चाटता हुआ बोला वह।

“हट, ऐसा तो नहीं है।” मैं बोली।

“फिर इतनी जल्दी किस बात की?” अपने पैंट के अग्रभाग पर हाथ फेरते हुए बोला।

“संभालिए अपने पपलू को।”

“आपको देखकर संभलता ही तो नहीं यह हरामी। मौका तो दीजिए सेवा का, मेरा पपलू खुश हो जाएगा, आपकी मुनिया खुश हो जाएगी।”

“जानती हूं, जानती हूं, लेकिन अभी नहीं, फिर कभी, अभी मैं जल्दी में हूं।” मैं पीछा छुड़ाने के लिए बोली। वैसे दास बाबू के लिंग, उनकी कामकला और संभोग क्षमता से मैं कम प्रभावित नहीं थी।

“ठीक है, लेकिन यह फिर कभी कब आएगा?” उन्होंने पास आकर मेरी ब़ाह पकड़ ली। मैं हड़बड़ा गयी उनकी धृष्टता पर। इधर उधर देखा, सभी अपने काम में व्यस्त थे।

“हाथ छोड़ मां के लौड़े, वरना हाथ तोड़ के गांड़ में डाल दूंगी।” फुंफकार उठी मैं। मेरे इस रौद्र रूप की तो कल्पना भी नहीं की थी शायद उसनें। सहम कर छोड़ दिया मुझे।

“ओह सॉरी।” उसकी सहमी आवाज सुनकर मैं पसीज गयी।

“कोई बात नहीं, लेकिन ख्याल रखिएगा, मैंने ना कहा मतलब ना। वैसे भी मैं सिर्फ अभी न ना कह रही हूं। लेकिन शायद ऐसी बेरुखी से नहीं कहना चाहिए था। बुरा लगा?” मैं नरमी से बोली।

“नहीं, मेरी गलती है। मुझे ऐसे खुले में ऐसी गुस्ताखी नहीं करनी चाहिए थी।”

“छोड़िए अब इस बात को। हां बोलिए कब आऊं आपकी बांहों मेंं पिसने के लिए?” मैंने माहौल हल्का किया।

“ओके, तो परसों।” खिल उठा वह।

“वाह मेरे रज्जा, ये हुई न शरीफों की तरह बात। निकाल लीजिएगा सारी कसर। अगर मन में गुस्सा अब भी है तो वो भी निकाल लीजिएगा, मैं कुछ न बोलूंगी, ठीक है मेरे रसिया?” मैं मनमोहक मुस्कान फेंकती हुई तेजी से घर में दाखिल हुई। बैग वैग बिस्तर में ही फेंक फांक कर सीधे बाथरूम में घुस गयी। अच्छी तरह से नहा धोकर फ्रेश हो गयी। अच्छा सा परफ्यूम छिड़क कर तैयार हो गयी।

“क्या बात है, बड़ी चमक रही हो?” बैठक में आते ही हरिया बोला।

“अच्छा नहीं लग रहा है?” मैं बोली।

“बहुत अच्छा लग रहा है। मन कर रहा है…..”

“क्या मन कर रहा है?” इससे पहले कि मैं कुछ समझती, हरिया नें आगे बढ़ कर मुझे चूम लिया। “हट।” मैंने मीठी झिड़की दी। अबतक रामलाल भी आ पहुंचा।

“वाह, सुंदरी।” वह बोल उठा।

“हट, अब आप भी शुरू हो गये।”

“हें हें हें हें” हंसने लगा वह। “अब सुंदरी को सुंदरी न कहें तो और का कहें?”

“अभी एक और सुंदरी आने वाली है।” मैं बोली।

“कौन?” हरिया और रामलाल दोनों एक साथ बोल पड़े।

“रेखा।”

“वाह, कल ही तो आई थी। वाह, मस्त है। मजा आएगा।” रामलाल मासूमियत से राज पर से पर्दा फाश कर दिया।

“ओह, कल ही आई थी? मगर मुझसे तो मिली नहीं?” मैं चकित होने का दिखावा कर रही थी।

“वह हमसे मिलने न आई थी।”

“हां हां, हमसे काहे मिलेगी। मैं कोई मर्द थोड़ी न हूं। खैर छोड़ो यह सब बात। वह आने वाली होगी, नाश्ता पानी का व्यवस्था करो जा कर।” मैं बोली। हरिया तुरंत किचन में जा घुसा। रामलाल भी फ्रेश होने भागा। रेखा जो आने वाली थी। पांंच बजते बजते ही रेखा आ धमकी पंकज के साथ।

“वाऊ कामिनी, बड़ी खूबसूरत लग रही हो।” रेखा प्रशंसात्मक स्वर में बोली।

“हां आंटी, यू आर लुकिंग ग्रेट।” पंकज  मुझे ऊपर से नीचे ललचाई नजरों से देखता हुआ बोला।

“तुम दोनों मां बेटे भी ना। इतनी भी खूबसूरत नहीं हूं। तुम्हें देखो, तुम भी कम खूबसूरत लग रही हो क्या?” मैं रेखा से बोली। हल्की क्रीम कलर की शिफॉन की साड़ी में उसका सांवला रंग खूब खिल रहा था। कमनीय देह की मालकिन तो थी ही। उस पर लो कट ब्लाऊज से उसके छलक पड़ने को बेताब बड़े बड़े उरोज तो गजब ही ढा रहे थे। मर्दों के दिलों पर छुरियां चलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी उसनें। कितनी बदल गयी थी। कहां तो साल भर पहले तक पति की अवहेलना झेलती, मात्र एक घरेलू औरत बन कर घुट घुट कर जीने को वाध्य थी, उसी को अपना जीवन मानकर जीती रही, किंतु मेरी संगत में आकर उसनें जीना सीख लिया था। जीने का नजरिया ही बदल गया था उसका। पहनावा ओढ़ावा भी बदल गया था और उसका व्यक्तित्व काफी चित्ताकर्षक हो गया था।

“हट रे, चढ़ा मत मुझे।” झेंप गयी थी पगली।

“सच कह रही हूं।” मैं बोली।

“हां, यह सच है।” अबतक रामलाल भी आ गया था। दमक रहा था वह भी। तभी हरिया भी आ गया, और संयोग तो देखो, करीम भी न जाने कहाँ से जिन्न की तरह प्रकट हो गया।

“वाह रेखा जी, आज तो बिजली गिरेगी।” करीम बोला।

“कामिनी, इसी लिए बुलाया था? सब मिल कर मेरी खिंचाई किए जा रहे हैं।” तनिक झुंझलाहट के साथ रेखा बोली।

“बस बस, हो गया। हरिया चाचा, जाकर चाय की व्यवस्था कीजिए, लेकिन पहले पानी तो पिलाईए।” मैं बात बदलते हुए बोली। अबतक पंकज की नजर सिर्फ मुझी पर गड़ी थी।

“पानी मैं लाता हूं।”कहते हुए करीम चला। हरिया चाय की व्यवस्था करने किचन में जा घुसा। रामलाल वहीं सोफे पर बैठ गया। उसकी प्रशंसात्मक व कामुक दृष्टि रेखा पर ही टिकी हुई थीं। मेरे मन मेंं अपने तरीके से पंकज को हासिल करने की योजना बन चुकी थी, सबकुछ बड़ा आसान था। कुछ सी पलों में करीम पानी लेकर आ गया। कुछ मिनट पश्चात गरमागरम पकौड़े ले कर हरिया हाजिर हुआ। हम पकौड़े खाते हुए इधर उधर की बातें करने लगे।

“हां तो पंकज, कॉलेज में क्या सब्जेक्ट है?” मैं पंकज से मुखातिब हुई। पंकज अकस्मात हुए इस सवाल से हड़बड़ा गया। वह मेरी कमनीय देह पर ही खोया हुआ था।

” क क क क्या?”

“सब्जेक्ट्स।” उसकी हालत पर मैं मुस्कुरा उठी।

“ओह, साईंस।”

“ओहो, साईंक्टिस्ट साहब, आगे क्या करना है?”

“इंजीनियरिंग।”

“बहुत बढ़िया। किस फील्ड में?”

“आई टी।”

“बहुत बढ़िया। अच्छी तरह पढ़ रहे हो ना?”

“हां, तैयारी तो पूरी है।”

“गुड ब्वॉय।” इसी बीच चाय भी आ गयी। हम सभी चाय की चुस्कियां लेने लगे।

“आंटी, आपका कैंपस और घर तो काफी बड़ा है।” चाय पीते पीते पंकज बोला।

“हां वो तो है। दिखा दूंगी, पहले चाय खतम कर लो।”

“ओह श्योर।” गटागट चाय पी गया वह। मैं मन ही मन मुसक उठी, पागल, बेकरार लड़का। मुझे इस उम्र के लड़कों से इसी तरह की बेसब्री के कारण तनिक घबराहट होती है। इतने कम उम्र का यह पहला लड़का था जिस पर मेरा दिल आया था। देखती हूं, आगे क्या होता है।

“चलें।” खड़ा हो गया वह।

“अरे चाय तो खतम कर लूं।” मैं जानबूझकर कर धीरे धीरे चाय पी रही थी। मुझे उसकी बेकली देख कर मजा आ रहा था। “चल रेखा तू भी।” मैंने यूं ही बोल दिया। मैं जानती थी कि रेखा का मन नहीं था उठने का। तीन तीन मनपसंद मरदों के बीच बैठी जो थी। तीनों के मुंह से लार टपक रहे थे। अवसर का फायदा उठाने की फिराक में थे सभी। मैं जानती थी, लेकिन पंकज को समझ नहीं आया। वैसे भी उसके दिमाग में तो मेरी खूबसूरती का परदा पड़ा हुआ था।

“नहीं तुम ही लोग घूम आओ। मैं यहीं ठीक हूं।”

“पूरा कैंपस और घर देखने में समय लगेगा।”

“लगने दे।”

“देर होगा।”

“होने दे।”

“बोर हो जाओगी यहां बैठे बैठे।”

“नहीं होऊंगी बोर, यहीं ठीक हूं मैं। बातें करूंगी, ये लोग हैं न।” साली इनसे करेगी बात, जो लगाए बैठे हैं घात। दिखा दी अपनी जात, खेलेंगे तीनों हाथो हाथ। तीन तीन औरतखोर बूढ़े और एक अकेली औरत जात। समझ रही थी सब, इनसे मस्ती के मूड में थी। जब तीनों मिलके नोचेंगे तब समझ आएगा। समझ क्या आएगा, शायद इसकी अभ्यस्त भी हो चुकी हो। खैर मुझे क्या, मैं तो खुद अनजान हिरणी बनी इस उभरते, नवसिखुए, भूखे शेर का शिकार बनने की कल्पना में डूबी हुई थी। पता नहीं क्या करेगा? कैसे करेगा? रोमांच था, तनिक भय भी था इसकी बेसब्री से, किशोरावस्था की अपरिपक्वता से, खिलंदड़ मानसिकता से। खैर जो होगा देखा जाएगा। मुझे भी अनजाने, जोखिमपूर्ण परिस्थितियों में संसर्ग का लुत्फ उठाने में अलग ही आनंद की अनुभूति होती थी। जोखिम था, किंतु परिस्थिति की बागडोर मुझे अपने हाथों में रखना बखूबी आता था, अत: सारी शंकाओं, दुश्चिंताओं को झटक कर खुद को पंकज के आगोश में झोंकने को तत्पर हो गयी। यही सोचते हुए मैं उठ खड़ी हुई।

“चलो बेटे, मैं तुम्हें घुमा लाती हूं।”

“चलिए आंटी।” उछल कर खड़ा हो गया और मेरे पीछे पीछे चल पड़ा। हम उस बैठक हॉल से निकले और बरामदे से होते हुए बाहर लॉन की ओर बढ़े।

“यह बांई ओर कौन सा बिल्डिंग बन रहा है आंटी?” पंकज अब मुझ से सट कर चल रहा था। मैं सनसना उठी थी।

“यह हमारा वृद्धाश्रम बन रहा है। देखना है?”

“हां हां चलिए।” अबतक सारे कामगर जा चुके थे। भवन करीब करीब तैयार था। फिनिशिंग का काम चल रहा था। ग्राऊंड फ्लोर तैयार हो चुका था। प्रथम तल्ले का काम भी खत्म होने को था। ग्राऊंड फ्लोर में एक बड़ा सा हॉल, छ: बड़े बड़े कमरे, एक बड़ा सा बावर्चीखाना और तीन टॉयलेट व बाथरूम थे। एक कमरे में संयुक्त टॉयलेट बाथरूम था। हम अभी उस कमरे में घुसने ही वाले थे कि पंकज बोला, “बहुत अच्छा और बड़ा बंगला है ये तो।”

“हां।”

“क्यों?”

“बन गया बस। पता नहीं कितने लोगों का आना होगा यहां। हो सकता है और बढ़ाना पड़े इसे।”

“ओह। एक बात बोलूं।” वह बिल्कुल सट गया था मुझसे।

“बोलो।”

“आप बड़ी खूबसूरत हैं।”

“ऐसा? मुझे तो नहीं लगता ऐसा।” मैं उस कमरे में घुसते हुए बोली। धीरे धीरे वह मुद्दे पर आ रहा था।

“सच कह रहा हूं।”

“हट झूठे।” मैं पुलकित हो कर बोली।

“झूठ नहीं, सच्ची।”

“अच्छा मान लिया, तो?”

“तो, आपको प्यार करने का मन कर रहा है।” वह ठीक मेरे पीछे खड़ा था, सट कर।

“हट, यह ककककक्या कह रहे हो तुम?” मैं चौंकने का नाटक करते हुए पलट कर बोली। जैसे ही पलटी, पंकज से टकराई और गिरते गिरते बची। पंकज नें मुझे अपनी मजबूत बांहों में थाम लिया था। अच्छा खासा छ: फुटा गबरू जवान था वह। “छोड़ो मुझे।” उसकी बांहों से छिटक कर बोली।

“ठीक तो कह रहा हूं।” दुबारा उसनें मुझे बांहों में जकड़ लिया।

“हाय राम, यययययह ककक्या कर रहे हो?” मैं बनावटी गुस्से में बोली।

“प्यार कर रहा हूं और क्या।” जबरदस्ती मुझ पर हावी होता जा रहा था।

“छि: छि: मैं तेरी मां की जैसी हूं। छोड़ो मुझे।” मैं कसमसाते हुए बोली।

“मां जैसी न हो, मां तो नहीं ना।” अब वह मेरी कमर को कस के पकड़ा और मुझे चूमने को सामने झुका। मैं पीछे कितना झुकती। मेरे बड़े बड़े स्तन उसके चौड़े चकले सीने से दब कर कुर्ते से छलक पड़ने को व्याकुल हो उठे। मैं अंदर ब्रा नहीं पहनी थी। नीचे मैं प्लाजो पहनी हुई थी। जिसकी कमर में इलास्टिक था।

“शर्म नहीं आती?”

“नहीं।” धृष्टता पूर्वक बोला वह। उसकी आंखों में वासना की चमक स्पष्ट देख पा रही थी मैं।

“ऐसा मत करो मेरे साथ बदमाश।”

“कैसा करूं?” शरारतपूर्ण ढंग से बोला। मै अपनी योनि के ठीक ऊपर  कठोर  दस्तक महसूस कर चुनचुना उठी।

“बेशरम।”

“हां मैं हूं बेशरम।”

“जंगली।”

“हां हूं मैं जंगली।”

“जानवर, छोड़ मुझे।”

“जानवर हूं, छोड़ कैसे दूं, इतने खूबसूरत शिकार को?” उसनें अपने तपते होंठ मेरे थरथराते होंठों पर धर दिया। मैं उसकी बांहों में पिघलने लगी। मैं इस जवान लड़के की बांहों में समाने को आतुर थी, किंतु इनकार का नाटक, शरीफ महिला का अभिनय करते हुए छटपटाती रही। एक हाथ से उसनें मेरी कमर थाम कर दूसरे हाथ से मेरे नितंबों को मसलना आरंभ कर दिया था। उसे शायद आभास हो गया था कि प्लाजो के अंदर मैं नंगी थी। पैंटी नदारद थी। उसके चुम्बनों से मैं अपने पर से नियंत्रण खोने लगी थी और उस पर उसके पंजों से मेरे नितंबों का मसला जाना, मैं पागल होने लगी।

ज्यों ही उसके होंठ मेरे होंठों से हटे, मैं अपने को संयंत करते किसी प्रकार बोली, “आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, यह यह ककककक्या कर रहे हो मेरे साथ? उफ्फ्फ छोड़ो।”

“छोड़ने के लिए थोड़ी न पकड़ा है? अरे, अरे, आपने तो अंदर कुछ पहना भी नहीं है। वाह, इसका मतलब, इसका मतलब आप तो पहले से तैयार हैं।” अब वह पूरे औरतबाज की तरह बोल रहा था।

“तैयार? किस बात के लिए तैयार। छोड़ो मुझे। आह्ह्ह्ह।” मैं तड़पती हुई बोली।

“अब यह बताना पड़ेगा? क्या चुदवाने के लिए तैयार नहीं हैं बोलिए?” पक्के माहिर चुदक्कड़ की भांति बोल रहा था वह।

“छि: छि: यह क्या बोल रहे हो?” मैं विरोध दिखाने लगी।

“छि: छि: क्या? क्या मैं समझता नहीं? अंदर पैंटी नहीं पहनने का क्या मतलब?” वह छाता जा रहा था मुझ पर।

“हट हरामी, वह तो जल्दी बाजी में…..”

“जल्दी बाजी में, या चुदने की तैयारी में?” उसकी शिकारी नजरें मेरे चेहरे पर गड़ी थीं।

“यह तुम ककककक्या बोल रहे हो?”

“सच ही तो बोल रहा हूं।”

“छि:, यह सब करने के लिए तुझे मैं ही मिली थी हरामी? और भी तो हैं?” मेरा विरोध बदस्तूर जारी था।

“और भी हैं मगर आपकी जैसी नहीं।” उसनें अब मेरे नितंबों को मसलना छोड़कर मेरे उरोजों को मसलना शुरू कर दिया।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई, आह्ह्ह्ह मांआंआंआंआं, अपनी मां जैसी औरत से ऐसी हरकत क्यों कर रहा है रे? बरबाद हो जाऊंगी मैं।” मैं विरोध करती रही, मगर धीरे धीरे वह मुझे पीछे ढकेलने लगा। पीछे जाते जाते अचानक मेरा पैर कमरे में पड़े एक लकड़ी के तख्तपोश से टकराया और मैं पीछे की ओर गिरने लगी, लेकिन पंकज नें अपनी मजबूत पकड़ से आजाद नहीं किया, बल्कि हौले से मेरे असंतुलित शरीर को उस तख्तपोश पर लिटा दिया और मुझ पर झुक गया।

“बरबाद कौन कर रहा है आंटी आपको? वाह वाह, ब्रा भी नहीं, अब बताईए, मैं सच ही कह रहा था ना, आप चुदने के लिए लाई हो मुझे यहां?” धूर्तता से मुस्कुरा रहा था।

“नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई।” मैं कलप कर बोली। लेकिन वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब उसने कुर्ते के ऊपर से ही मेरे उरोजों को मसलना आरंभ कर दिया। “आह, ये ये ये ऐसा मत करो आह्ह्ह्ह।”

“बकवास, नाटक, सब नाटक। ऐसा क्यों न करूं? इतनी मस्त, दबवाने, चुसवाने को तैयार, पकी पकाई चूचियों को ऐसे कैसे छोड़ दूं? वाह वाह, बड़ी मस्त चूचियां हैं आंटी। आप तो बड़ी मस्त माल हो, मजा आ गया।” वह अब बेदर्द होता जा रहा था। मेरे स्तनों को दबाने में उसे बड़ा मजा आ रहा था। मैं पगलाई जा रही थी।

“देखो यह ठीक नहीं है। ओह बाबा, ओह, छोड़ो छोड़ो।” मैं गिड़गिड़ाने का नाटक करने लगी। हालांकि मैं समझ रही थी कि मेरे नाटक का परदा आहिस्ता आहिस्ता खुलता जा रहा था। फिर भी मैंने अपना अभिनय छोड़ा नहीं।

“ठीक है छोड़ दूंगा आंटी छोड़ दूंगा, बस एक बार देख तो लूं आपका नंगा बदन।” कहते कहते जबरदस्ती मेरे कुर्ते को उतार दिया। मैं नहीं नहीं करती रही, किंतु वह अब कहां रुकने वाला था। ब्रा तो पहनी नहीं थी, सो मेरे बड़े बड़े स्तन बेपरदा हो कर फड़फड़ा उठे। वह भूखे कुत्ते की तरह टूट पड़ा मेरे स्तनों पर और मुंह में भर कर चूसने लगा। उसका एक हाथ अब मेरी योनि पर पहुंच चुका था। वह मेरी योनि सहला रहा था। मेरी योनि पानी छोड़ने लगी, जिससे मेरे प्लाजो का अगला हिस्सा भीग गया। वह समझ गया कि मैं ताकरीबन तैयार हो गयी थी।

“नननननहींईंईंईं, प्लीज, प्लीज, ऐसा न करो। आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, कितने खराब हो तुम। इतनी कम उम्र में यह सब, हाय रा्आ्आ्आ्आ्आम।” मैं उसकी बांहों में छटपटाती रही।

“मेरी उम्र पर मत जाईए आंटी।”

“क्यों? क्यों न जाऊं तेरी उम्र पर कमीने कुत्ते?”

“क्योंकि अबतक मैं आठ लौंडियों और दो औरतों को चोद चुका हूं। हां हा, ठीक कहा आपने, मैं सच में कमीना हूं, कुत्ता हूं। अब तक तो आपको समझ आ ही गया होगा। नहीं आया तो अब समझ आ जाएगा।” कहते हुए उसने अपने हाथ से मेरी प्लाजो को नीचे खिसका दिया। मेरी फकफक करती योनि खुली हवा के संपर्क में और आ कर फुदक उठी। यहीं कहां रुका वह। वह तो खींच खांच कर मेरे प्लाजो को उतारता चला गया। लो, हो गयी मैं नंगी, मादरजात नंगी।

“हाय राम ओह भगवान, यह ककककक्या किया?” मैं बनावटी गुस्से का इजहार करते हुए बोली।

“बस्स्स्स्स, हो गया, नंगी किया और क्या। देखना था आपका नंगा बदन। वाऊ आंटी, उफ्फ्फ, क्या बदन है आपका आह।” उसकी आंखों में अब वहशी पन अब मैं साफ साफ देख पा रही थी। संध्या का करीब छ: बज रहा होगा। मई के महीने में बैसे भी छ: साढ़े छ: बजे सूर्यास्त होता है यहां। प्रकाश पर्याप्त था मेरी कामुक देह का दर्शन करने को। मैं अपने को बेबस दिखा रही थी। उसके चंगुल में फंसी बेबस पक्षी की भांति फड़फड़ा रही थी। उसकी नजरें ज्यों ही मेरी योनि पर पड़ी, फटी की फटी रह गयी।

“उफ्फ्फ, इतनी फूली फूली चूत, माई गॉड, इतनी चिकनी, मक्खन जैसी, गजब आंटी। मान गया, आप भी क्या चीज हो।” वह अब बेसब्र हो चला था।

“हो गयी न तसल्ली?”

“किस बात की तसल्ली?”

“मुझे नंगी देखने की।”

“हाय रे मेरी भोली आंटी। ऐसे नंगे बदन को देखकर, ऐसी मस्त चूचियों को देखकर, ऐसी मस्त गांड़ को देखकर और ऐसी मक्खन जैसी चूत को देखकर भला बिना चोदे तसल्ली कैसे हो?” उसके होंठों पर वहशियाना मुसकान नाच रही थी।

“नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई।”

“क्या नहीं?”

“यह गलत है।”

“गलत कुछ नहीं। औरत को चोदना मर्द की गलती नहीं।” वह अपना पैंट खोल चुका था। जल्दी से चड्ढी भी उतार फेंका उसनें। हाय रा्आ्आ्आ्आ्आम, इतना्आ्आ्आ्आ बड़ा लिंग? आज तो तू मरी रे कामिनी। उफ्फ्फ भगवान, इस 18 साल के लड़के का लिंग इतना्आ्आ्आ्आ बड़ा्आ्आ्आ्आ्। दस इंच तो अवश्य लंबा था और मोटा, बा्आ्आ्आ्आप रे्ए्ए्ए्ए्ए बा्आ्आ्आ्आप, कम से कम तीन इंच तो जरूर था मोटा। उफ्फ्फ भगवान कहाँ कहाँ से ऐसे लौंडे दिलाते हो मुझे? मेरी क्षमता की परीक्षा तो नहीं ले रहे? भयभीत होना लाजिमी था। मैं कोई अपवाद नहीं थी।

“अपनी उम्र देखी है?”

“हां।”

“मेरी उम्र देखी है?”

“हां।” धृष्टता की पराकाष्ठा थी।

“फिर भी?”

“हां, फिर भी।”

“तेरी मां की उम्र की हूं।”

“क्या फर्क पड़ता है?”

“विधवा हूं।”

“आप नाम के लिए विधवा हैं। आपका सब कुछ हजारों सधवाओं से कहीं ज्यादा आकर्षक है।”

“फिर भी…..”

“फिर भी क्या?”

“बरबाद हो जाऊंगी।”

“कौन सी सती सावित्री हैं आप? सब कुछ तो दिख रहा है। अब ज्यादा नखरे मत कीजिए।” कहते हुए उसनें मेरे स्तनों को दोनों हाथों से मसलना आरंभ किया और मेरी योनि पर अपना मुंह रख दिया।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई।” वह तो मानो बहरा हो गया था। मैं पागलपन में पैर पटकने लगी, लेकिन वह तो कुत्ते की तरह मेरी योनि को चाटने लगा, चूसने लगा, मेरे भगांकुर को दांतों से काटने लगा। “आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह इस्स्स्ई्ई्ई मांआंआंआंआं अर्र्र्र्र्रे्ए्ए्ए्ए्ए, उफ्फ्फ हर्र्र्र्रा्आ्आ्आ्आ्आमी्ई्ई्ई्ई्ई।” मैं थरथरा उठी। समझ गया वह कि अब मुझे बड़े आराम से चोद सकता था। अतः पोजीशन में आ गया। जबरदस्ती मेरे पैरों को फैला कर आ गया मेरी जांघों के बीच।

“अब तैयार हो जाईए।”

“नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई।”

“क्या नहीं?”

“मर जाऊंगी।”

“नहीं मरोगी।” अब आदरसूचक संबोधन भूल गया वह।

“फाड़ दोगे तुम।”

“हट, नहीं फटेगी।”

“बहुत मोटा है तुम्हारा।”

“मेरा क्या? मेरा क्या मोटा है?”

“ल्ल्ल्ल्ल्लिंग।”

“ओह ये्ए्ए्ए्ए्ए्ए, ये लिंग नहीं, लंड है, लौड़ा है।” बेशर्मी से अपना लिंग हिलाते हुए बोला।

“उफ्फ्फ, मत करो।”

“करूंगा तो जरूर, ये्ए्ए्ए्ए्ए्ए ले्ए्ए्ए्ए्ए।” कहते हुए मेरे इनकार, चीख पुकार को नजरअंदाज करते हुए घुसाता चला गया अपना विकराल लिंग मेरी योनि में।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह मांआंआंआंआं, मर्र्र्र्र गयी्ई्ई्ई्ई्ई्ई रे्ए्ए्ए्ए्ए।” मैं दर्द से बेहाल होने लगी। मेरी चूत फटने फटने को होने लगी। मगर उसे मेरी चीख पुकार से क्या मतलब था। उसे तो मिल गया था जो उसे चाहिए था।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, मस्त आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह। इतनी बड़ी चूत मगर इतनी टाईट? आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, मजा आ गया।” वह मस्ती में भर कर बोल उठा।

“नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई। आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” मैं दर्द से छटपटा रही थी।

“चुप्प हरामजादी, थोड़ा बर्दाश्त कर, फिर मजा आएगा।” अब वह गुर्राने लगा।

“नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई, मर रही हूं मैं्ऐं्ऐ्ऐं।”

“चुप्प साली कुतिया, न जाने कितना लंड खा चुकी है, अब नखरे कर रही है। हुं ््ऊऊंं््ऊऊंं। ये ले्ए्ए्ए्ए्ए। मजा ले” उसनें पूरा का पूरा भीमकाय लंड मेरी चूत में गर्भाशय तक ठोंक दिया। वह पूरी तरह अब जानवर बन गया था। फिर तो ताबड़तोड़ धक्के पे धक्का, बड़ी निर्ममतापूर्वक देने लगा और मैं हलकान होने का दिखावा करती रोने लगी।

“हाय, बरबाद हो गयी्ई्ई्ई्ई्ई्ई मैं।”

“साली शरीफजादी रंडी आंटी, बरबाद तो तू पहले से है। मुझे पता नहीं लग रहा है क्या। चुपचाप मजे से खाती रह मेरा लौड़ा बूरचोदी कुतिया आंटी।” बड़ी नृशंसता पूर्वक मुझ पर पिल पड़ा। मेरे गालों को चूमने लगा, होंठों को चूमने लगा, मेरी चूचियों को चूसने लगा, निप्पलों को दांतों से काटने लगा, और लगातार बड़ी तेज रफ्तार से कुत्ते की तरह दनादन दनादन अपनी कमर चलाता रहा। दर्द तो स्वभाविक था, लेकिन वह दर्द क्षणिक था, फिर तो आनंद ही आनंद। मजा ही मजा। मैं सुखद अहसास से सराबोर होती, उस बीस मिनट की भीषण चुदाई के दौरान दो बार झड़ी, उफ्फ्फ, और क्या खूब झड़ी। निहाल कर दिया उसनें मुझे। उस दौरान मैं भी मस्ती में भर कर कमर उछाल उछाल कर चुदवाने को वाध्य हो गयी।

“आह आह आह ओह ओह ओह।”

“आ रहा है न मजा?”

“हां रज्ज्ज्जा हां।”

“बोला था ना? ठीक बोला था ना?”

“हांं रे हां। साले चोदू मादरचोद हां। आह ओह चोद मां के लौड़े साले औरतखोर कुत्ते” मैं बोलते जा रही थी और चुदवाती जा रही थी। करीब बीस मिनट बाद उसनें मेरी कमर को ऐसे जकड़ा मानों तोड़ ही डालने पर आमादा हो।

“आह आह आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह ओह ओह ओह्ह्ह्ह्ह्ह।” उसका निश्वास निकला और साथ ही गरमागरम वीर्य की अंतहीन बौछार मेरी कोख में होने लगी।

“आह आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह मैं गयी्ई्ई्ई्ई्ई्ई रज्ज्ज्जा ओह्ह्ह्ह्ह्ह मेरे चोदू बेट्टे्ए्ए्ए्ए।” मैं भी लगी झड़ने। यह मेरा दूसरा स्खलन था। मैं मानो हवा में उड़ रही थी। फिर धीरे धीरे हमारी उत्तेजना में मानों शीतल जल का फौव्वारा चलने लगा। शनैः शनैः हम दोनों एक दूसरे की बांहों में समाये शांत होते चले गये। मैं संतुष्ट थी, पूर्ण संतुष्ट, वह खुश था, संतुष्ट था, उसके होंठों की मुस्कान बता रही थी।

“वाह रानी आंटी, मजा आ गया। आज पहली बार तुम जैसी औरत को चोदकर दिल खुश हुआ।” वह तुम पर आ गया था। उम्र की दीवार ढह चुकी थी। ठीक ही था। ऐसा ही होना भी चाहिए था। अब तो मैं उसकी अंकशायिनी बन चुकी थी। हमबिस्तर हो चुकी थी। पूरे समर्पण के साथ, पूरी बेशर्मी के साथ अपनी देह सौंप चुकी थी, मैं पगली दीवानी। अपने बेटे से भी कम उम्र के इस नये आशिक को अपना सर्वस्व लुटा कर कोई ग्लानि नहीं थी।

“हां मेरे चोदू, मेरे लंडराजा बेटे, मेरे तन मन के मालिक, ओह रज्ज्ज्जा, बड़ा्आ्आ्आ्आ् सुख दिया रे्ए्ए्ए्ए्ए पागल आशिक। जितने दिन रहो चोदते रहो मुझे मेरी चूत के रसिया।” मैं उसके चोड़े चकले सीने में सर रख कर बोली। खुशी से चूम लिया मैंने उसके होंठों को। तभी, फच्च की आवाज से पंकज का लिंग मेरी योनि से भीगे चूहे की तरह बाहर निकला। हम दोनों हंस पड़े।

“अच्छा, चल अब यहां से।” कहते हुए मैं लड़खड़ाते हुए उठी और अपने कपड़े पहनने का उपक्रम करने लगी, लेकिन अब भी पंकज का वीर्य टप टप मेरी योनि से चू रहा था। वहीं कोने पर पड़े एक चीथड़े से पोछना चाह रही थी कि,

“अरे अरे, ये क्या कर रही हो, ये रहा मेरा रुमाल।” पंकज नें अपना रुमाल मुझे दिया, जिससे पोंछ पाछ कर मैंने अपनी योनि को, जो चुद कर लाल और फूल कर कुप्पा बन चुकी थी, सुखाया और साफ किया, फिर उसी से पंकज नें अपना लिंग साफ किया। हम अपने कपड़े पहन कर वहां से निकले।

“बड़ी जबर्दस्त चीज हो तुम आंटी।” पंकज बोला।

“हट। हरामजादा।” मैं इठलाई।

“सच। जिसनें भी चोदा होगा, दीवाना बन गया होगा।” छेड़ रहा था।

“चुप, छेड़ रहे हो?”

“लो, अब सच बोलना भी मुश्किल।”

“अच्छा अच्छा अब चलो।” मैं बोली। मैं जानती थी कि बैठक में भी रेखा उन तीनों ठरकियों से अवश्य मजे कर रही होगी, सिर्फ बीस मिनट में ही इस लड़के नें मेरी ऐसी की तैसी कर दी थी। गजब का लिंग था इसका और गजब की चुदाई। इतने ही समय में मेरा सारा कस बल निकाल डाला था, नस नस ढीली कर दी थी, इतनी कम उम्र में ही गजब का चुदक्कड़ निकला यह तो। खैर तीन दिन मजे लेनी थी। यह भी तो मुझ पर फिदा हो चुका था। मैं समय बिताने के लिए इधर उधर बेमतलब घूमाने लगी इसे। बेटे नें तो मजा ले लिया था, मैं भी भरपूर मजे ले चुकी थी, इसकी मां के मजे में क्यों व्यवधान डालूं, इतनी भी स्वार्थी नहीं थी मैं। करीब घंटे भर बाद जब हम बैठक में पहुंचे, सब कुछ सामान्य दिख रहा था मानो वहां कुछ हुआ ही न हो। लेकिन रेखा के चेहरे का भाव सब कुछ बयां कर रहा था, वहां आए तूफान का, वासना के तूफान का।

“हो गया गप सड़ाका?” मैं मुसकराते हुए रेखा से पूछ बैठी।

“हां, हो गया।” झेंपती हुई रेखा बोली।

आगे की कथा, अगली कड़ी में। तबतक के लिए अपनी कामुक लेखिका रजनी को आज्ञा दीजिए।

आपलोगों की

रजनी

[email protected]

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