कामिनी की कामुक गाथा (भाग 83)

Posted on

पिछले भागमें आपलोगों नें पढ़ा कि किस तरह अपनी कामुकता के वशीभूत मैं एक अजनबी दूधवाले से चुद गयी। अपने हिसाब से उसनें मेरा कचूमर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। रेखा का उसके पुत्र पंकज द्वारा शारीरिक संबंध की घटना उसी के मुख से सुनकर मैं सनसना उठी थी, हालांकि यह आग मेरी ही लगाई हुई थी। रेखा के घर से निकल कर अपने घर लौटते वक्त मेरे सारे शरीर में चींटियां दौड़ रही थीं। आग लगी हुई थी आग। मन तो कर रहा था कि इसी वक्त कोई आकर मेरे तन की ज्वाला बुझा डाले। मेरी आशाओं पर तुषारापात तब हुआ जब मुझे पता चला कि हरिया, क्रीम और रामलाल अपनी रासलीला मनाने सरिता, रबिया के यहां जा रहे हैं। तभी मेरे जेहन में अपने दूधवाले को फांस कर आज का दिन रंगीन बनाने का ख्याल आया क्योंकि आज छुट्टी का दिन था और मैं पूरा दिन घर मैं पड़े रह कर वासना की अग्नि में जलते अपने तन के साथ तड़पती नहीं रह सकती थी। लेकिन ऊपरवाले की मर्जी कुछ और ही थी। अपने स्थाई दूधवाले के स्थान पर उसका भीमकाय भाई आज दूध देने के लिए आया था। खैर, कहां तो मैं अपने दूधवाले को अपना जलता बदन परोसना चाह रही थी और कहां से यह उसका पहलवान भाई आ टपका था। पर मुझे क्या, मैं तो वासना की तपिश में मानो अंधी हो चुकी थी, मेरी हालत ऐसी थी कि इस वक्त कोई भी आकर मेरे तन से अपनी प्यास बुझा सकता था और वही हुआ भी। लेकिन इस चक्कर में उस भुक्खड़ चुदक्कड़ नें मेरी जो दुर्दशा कर दी थी, बता नहीं सकती। पता नहीं कितने दिनों का भूखा था, मुझ जैसी मलाईदार औरत उसे बड़े भाग्य से हाथ लगी थी, जिसे उसने चटखारे ले ले कर खाया, नोच नोच कर खाया, निचोड़ निचोड़ कर खाया और मैं चुदाई की मस्ती में डूबी, नुचती रही, निचुड़ती रही, पिसती रही। मदहोशी के आलम में होश ही कहां था मुझे। आनंद के समुंदर में डूबती उतराती कहां मुझे और कुछ का आभास हो रहा था। मग्न मन बस नुचती रही, चुदती रही। जब उस कामुक पशु की हवस का नशा उतर गया तो उसकी गिरफ्त से आजाद हो कर, नुची चुदी, निचुड़ी, लस्त पस्त, पसीने से सराबोर, थकान से अधमरी, किसी इस्तेमाल की बाद रद्दी की तरह फेंकी गयी वस्तु की तरह सोफे पर पड़ी लंबी लंबी सांसें ले रही थी। आंखें मेरी बंद थीं। पता नहीं कितनी देर तक उसी तरह बेशर्मी के साथ अस्त व्यस्त हालत में पसरी पड़ी रही। जैसे जैसे मेरी हालत सामान्य होने लगी तो अब मालूम पड़ रहा था कि मुझ पर क्या बीती थी। उस वासनामयी भयानक तूफ़ान के शांत होने के पश्चात अपनी बुरी गति का पता चल रहा था।

“हमको बड़ा मज़ा आया, इतने साल बाद एक औरत मिली चोदने को और वह भी इतनी मस्त माल, तबियत खुश हो गया, और हम जानते हैं कि तुमको भी खूब मज़ा आया है, अब तू माने या न माने। अब तो हम और आवेंगे।” जी भर के मेरे शरीर का उपभोग कर लेने के पश्चात पुर्ण संतुष्टि की मुस्कान उसके होंठों पर खेल रही थी। मैं ने अधमुंदी आंखों से सामने देखा, अब वह उसी तरह नंगी धड़ंग अवस्था में टांगें फैलाए, अपने चोद चोदकर आंशिक रूप से मुरझाए, झूलते लिंग के साथ सामने वाले सोफे पर बैठा बड़ी बारीकी से मेरे पसीने से लतपत, निढाल, थक कर चूर, लस्त पस्त शरीर का दर्शन कर रहा था। मेरी सांसों के साथ उठते गिरते उन्नत उरोजों के साथ साथ पूरे नग्न शरीर के उतार चढ़ावों को वह अब प्रशंसात्मक दृष्टि से मुआयना कर रहा था। शायद अपनी किस्मत पर रश्क भी हो रहा था कि बड़े भाग से ऐसी मदमस्त औरत पर हाथ साफ करने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। अब भी बड़ी ही हसरत भरी भूखी नजरों से देख रहा था। उसका सोया लिंग जाग रहा था, तनाव प्राप्त कर रहा था। तो, तों क्या अब भी उसका मन नहीं भरा था? इतनी बेरहमी से नोच खसोट के बाद भी?

“नहीं, और नहीं। आज जो हुआ सो हुआ, अब आगे से नहीं। बिल्कुल भी नहीं” हड़बड़ा कर उठने को हुई, खड़ी होने की कोशिश करते हुए बोली।

“आगे से नहीं मतलब? ठीक है ठीक है, समझ गया, अब आगे से नहीं, अब पीछे से, ठीक है?” वह बेशर्मी से बोला। इसकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ गयी।

“क क क क्या मतलब?” मैं खुद को संभाल कर बमुश्किल सोफे पर से उठती हुई बोल उठी। दिल धाड़ धाड़ धड़कने लगा। पीछे से का मतलब क्या है, कहीं, कहीं उसका आशय गुदा मैथुन से तो नहीं? हाय दैया। अगर ऐसा है तो, हे भगवान, फाड़ ही तो डालेगा मेरी गांड़, नहीं, कदापि नहीं। वैसे भी सारा शरीर तोड़ कर रख दिया था उस कामान्ध पशु नें।

“अब मतलब भी हम ही समझावें?” बड़ी ढिठाई से बोला वह।

“मैं कककुछ समझी नहीं।” मैं खीझ उठी थी।

“अब ई भी समझा दें? अब्भिए समझा देते हैं?” वह सोफे से उठ कर फिर से मेरी ओर बढ़ता हुआ बोला। उसका दानवाकार लिंग मेरे सामने बड़ी हेकड़ी के साथ झूम रहा था, अपनी विजय के नशे में चूर। देख कर मेरा चंचल मन पुनः तरंगित होने लगा, किंतु मेरे क्लांत शरीर नें मन की तरंगों को खारिज कर दिया। मैंने नाहक ही पूछ लिया था। अभी तो जाने ही वाला था, बाद की बात बाद में देखी जाती। कहीं, कहीं, अनजाने में मैं उसे पुनः आमंत्रण तो नहीं दे बैठी।

“नहीं, मुझे नहीं समझना। तुम जाओ यहां से।” मैं अपनी आवाज में जबरदस्ती तल्खी लाते हुए बोल उठी। अबतक मैं अपने थकान के मारे थरथरा रहे पैरों पर किसी प्रकार खड़ी हो चुकी थी। मैं लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़ कर फर्श पर पड़े मेरी नाईटी, जो मानो मेरी अवस्था की खिल्ली उड़ा रही थी, को उठाने का उपक्रम कर ही रही थी कि गिरते गिरते बची, बची क्या, रमेश नामक उस कामपिपाशु ग्वाले नें थाम लिया मुझे, साथ ही उसकी आवाज सुनकर चौंक उठी,

“न न न न, ऐसे नहीं मैडम। ऐसे ही थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर आराम से कपड़े पहन लेना।” अपने मजबूत हाथों से थाम रखा था उसनें। मैंने विस्फारित नेत्रों से नीचे देखा, उसका लिंग पुनः जाग रहा था। मैं उसके हाथों से छूटना चाह रही थी किन्तु असमर्थ थी। उसकी मंशा क्या थी पता नहीं, उसनें न मुझे सोफे पर बैठने दिया न ही स्वतंत्र रूप से खड़ा रहने दिया, ऐसा लग रहा था मानो मैं पूरी तरह उसके कब्जे में हूं, एक तो नुची चुदी, निचुड़ी, थकान से चूर, उसपर उसकी अति मानवीय मर्दाना ताकत, नतीजा मैं उसके आगे बेबस, उसके रहमो-करम पर थी। मैंने उसकी आंखों में देखा, वही जानी पहचानी स्त्री तन की भूख नृत्य कर रही थी। तो क्या, तो क्या फिर से?

“छोड़ो मुझे।” बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए बोली मैं।

“न न न न, ऐसे कैसे छोड़ दें मैडम। देखिए, तेरी बात सुनकर मेरा लौड़ा फिर से खड़ा हो गया।” अपने लंड को हिलाते हुए बोला वह।

“मैंने ऐसा क्या कह दिया?” मैं जानबूझकर अनजान बनती हुई बोली।

“वही, पीछे वाली बात, पिछवाड़े वाली बात, मतलब गांड़ वाली बात। सही कहा ना?” वह मुझे दबोचे हुए बोला। ओह मां, यह तो मेरी गांड़ का भुर्ता बनाने की बात कह रहा था।

“ननननहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्, ऐसा मत करो मेरे साथ। पहले जबर्दस्ती मेरी इज्जत लूट कर मेरी दुर्गति कर दी और अब मेरी गुदा का भुर्ता बनाने की बात करते हो? आगे से मेरा मतलब आज के बाद से था, चूत से नहीं। अपने से मेरी बात का ग़लत मतलब निकाल कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हो? अब मेरी पिछाड़ी के पीछे पड़ गये हो? नहीं नहीं, बिल्कुल नहीं।” मैं विरोध करने लगी।

“ई न न न न नहीं चलेगा। गांड़ तो देना ही पड़ेगा। तुम मानो चाहे न मानो। गांड़ तो हम चोदबे करेंगे।” मुझे सख्ती से थामे थामे बोला।

“नहीं होगा यह मुझ से। छोड़ दो प्लीज़।” गिड़गिड़ाने लगी थी मैं।

“जरा समझो मैडम, तेरे बदन का सबसे सुंदर हिस्सा है तेरी गांड़। बड़ी बड़ी, गोल गोल, चिकनी चिकनी, एकदम मक्खन जैसी, मस्त है मस्त। अब बोलो भला, एक तो इतने सालों का भूखा आदमी और सामने इतनी खूबसूरत गांड़, न चोदें तो मेरे साथ साथ इस खूबसूरत गांड़ के साथ अन्याय ही न होगा। कैसे छोड़ दें। हमको भी तो जवाब देना होगा भगवान को। हमसे कहेगा, “साले मादरचोद, तेरी जरूरत देख कर इतनी खूबसूरत औरत दिया चोदने को और साले भड़वे, खाली चूत मार के छोड़ दिया, फिर इतनी सुंदर गांड़ वाली औरत दे कर फायदा क्या हुआ?” यह कहते कहते वह मेरी गांड़ पर हाथ फेरने लगा।

“न न न न नहीं।” बस इतना ही तो कह सकी थी मैं। मेरी न न से उसपर क्या फर्क पड़ना था। पहले भी कौन सा फर्क पड़ा था। मेरी न न को कैसे हां हां में तब्दील होते देखा था उसनें। वह तो अपनी मनमानी के लिए अब पूर्ण आश्वस्त था। बेशर्म, जलील, कमीना, अब पूरी बेबाकी से मेरी चूचियों को अपने पंजों से सहला रहा था, आहिस्ते आहिस्ते मसल रहा था, खेल रहा था, साथ ही साथ अपने गंदे होंठों से मेरे चेहरे पर चुंबनों की बारिश कर रहा था। मुझे घिन आनी चाहिए थी, किंतु नहीं, कोई घृणा नहीं थी अब। मेरी अवस्था मानो सम्मोहित मूक गुड़िया सी थी। हाय राम, इसने तो मुझे पूरी तरह अपने काबू में कर लिया था। बिल्कुल पराधीन हो गयी थी मैं। कुछ भी विरोध करने की इच्छा ही नहीं थी। वैसे भी जुबानी विरोध का कोई अर्थ नहीं रह गया था।

अब तो मुझमें भी भीतर ही भीतर नवजीवन का संचार होने लगा था। यह क्या हो रहा था मुझे? कुछ पलों पहले मैं विरोध में पूरी ताकत आजमाईश कर रही थी और अब वह विरोध शनै: शनै: मद्धिम होते होते तिरोहित हो गया था। उसकी कामुक हरकतों से मेरा मन झंकृत हो उठा था। मेरे अंदर वासना का सैलाब उफान मार रहा था। कामुकता मुझ पर पुनः हावी हो चुका था। मैं अब समर्पण की अवस्था में थी। “आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, उफ्फ्फ, अब …..बस्स्स्स.” मेरे मुंह से निकले अल्फाजों नें जता दिया कि अब मेरे तन के साथ कामुकता भरा कोई भी खेल खेला जा सकता है। मेरी अवस्था से अनभिज्ञ नहीं था वह, खिल उठा।

“अब? अब का बस? एही समय का तो इंतजार कर रहे थे हम।” बड़ा खुश हो रहा था।

“ओ्ओ्ह्ह्ह्ह्ह, भगवा्आ्आ्आ्आन।” मेरी आंखें मुंद गयी थीं। अब जो होना है सो हो। जो होना है जल्दी हो। उफ़ अब और बर्दाश्त नहीं हो रहा था। मेरी सिसकारी निकल पड़ी। वह भी बेताब था, न जाने कितनी देर से इस पल के इंतजार में था, उसे भी कब से तलब लगी थी। नहीं, अब और नहीं, उससे और रुका नहीं जा रहा था। इतनी देर की उसकी मेहनत जो रंग लाई थी। अब मैं पूरी तरह उसके कब्जे में थी। पूरी तरह उसके रहमो-करम पर। अपनी मर्जी पूरी कर लेने को अब कोई बाधा नहीं थी। पुलक उठा वह। आनन फानन उसने मुझे अपनी मजबूत भुजाओं में उठा लिया किसी गुड़िया की तरह और मुझे लिए दिए सोफे पर बैठ गया। हमारी स्थिति ऐसी थी मानो कोई बच्ची एक दानव की गोद में बैठी हो। मेरी पीठ उसकी ओर थी। एक हाथ से मुझे तनिक हवा में उठा लिया और आपनी दूसरी हथेली पर थूक ले कर अपने लिंग पर लिथड़ा दिया।

मेरी जुबान तालू से चिपक गई थी। मूक बनी खुद के तन से हो रहे कुकर्म हेतु मानो मेरी मौन सहमति दे बैठी थी। अंदर ही अंदर रोमांचित हो रही थी कि उसके विशाल, मोटे, लंबे लिंगराज को अपनी गुदा में ग्रहण जो करने वाली थी। भयभीत भी थी, सहमी हुई, उस पीड़ा की कल्पना से, जो मेरी योनि में समाहित करते वक्त हुई थी। फिर सोचने लगी, क्या हुआ जो पीड़ा हुई, उस पीड़ामय दौर के पश्चात जो अवर्णनीय सुखद संभोग से सराबोर हुई, उसकी तुलना में वह प्रारंभिक पीड़ा तो नगण्य था। लो, अब मैं भी कहां इस बेकार के पचड़े को लेकर बैठ गई। अब तो मैं उसकी गोद में पूर्ण समर्पण की मुद्रा में आ चुकी थी, अब काहे की हिचक, ऊखल में सिर दे चुकी थी, मूसल से क्या डर। डर गयी तो मर गयी।

तभी मुझे नीचे से अपने गुदा द्वार पर अहसास हुआ उसके मूसल के दस्तक की। चिहुंक ही तो उठी, थरथरा उठी। उसनें मेरी कमर पकड़ कर कुछ ऊपर उठा लिया और अपने तने हुए थूक से लिथड़े, लसलसे, चिकने लिंग को अपने लक्ष्य पर स्थापित किया। इन सब से मैं अनभिज्ञ नहीं थी और समझ रही थी कि किसी भी पल मेरी गुदा का बंटाधार होना तय है। जैसे ही मेरे गुदा द्वार पर उसके लिंग की दस्तक हुई, मैं भय और रोमांच की मिली-जुली भावना से सनसना उठी। दिल धाड़ धाड़ धड़क रहा था।

धीरे धीरे उसनें मेरे शरीर को नीचे उतारना आरंभ किया और वो, मेरी गुदा का द्वार खुलता चला गया। उफ़, उसके मोटे लिंग नें बड़ी ही बेदर्दी से मेरी संकुचित गुदा का दरवाजा खोलना आरंभ किया, खोलना क्या, चीरना आरंभ किया। उफ़, फैलने की भी एक सीमा होती है, यह तो सीमा से बाहर फैला रहा था, सीमा से बाहर मतलब मेरी गुदा की स्थति अब फटी तब फटी वाली हो गयी थी।

“आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह भगवा्आ्आ्आ्आ्आन, ओ्ओ्ओ्ओ्ओ्ह, फटी फटी फटी, मेरी गांड़ फटी।” दर्द के मारे मेरे मुंह से निकला।

“नननननन नन, फटेगी नहीं, फटेगी नहीं, डर मत मैडम, देख देख, घुस्स्स गयाआआआआह।” और लो, उसके कहते न कहते उसका पूरा लंड सर्र से पूरा का पूरा समा गया मेरी गांड़ के अंदर।

“आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह फट्ट्ट्ट्ट् गयी, ओ्ओ्ओ्ओ्ह्ह्ह्ह मादर्र्च्च्च्च्चो्ओ्ओ्ओ्ओद, निका्आ्आ्आ्आल स्स्स्स्साले बहन के लौड़े, अपना लंड निकाल।” मैं दर्द से बिलबिलाती हुई चीखते हुए बोली।

“चू्ऊ्ऊ्ऊ्ऊप्प्प्प्प साली बुरचोदी मैडम, एकदम चुप्प्प्प। हर्र्र्र्र्रा्आ्आ्आ्आमजादी कुतिया चिल्लाती है लंबी। आराम से तो लंड घुसा है साली नौटंकीबाज, इतना भी काहे का चिल्लाना?” उसने मुझे कंधे से पकड़ कर पूरा जोर लगाया था ताकि मैं दर्द के मारे उठना चाहूं तब भी उठ न पाऊं। सचमुच मैं बेबस थी। उठना चाहकर भी उठ नहीं पा रही थी। उसका पूरा का पूरा मूसलाकार लंड मेरी गांड़ में धंस चुका था। ऐसा महसूस हो रहा था मानो मेरी गांड़ में किसी नें खंजर घोंप दिया हो। फट गयी थी क्या मेरी गांड़? शायद फट ही गयी थी या फटने फटने को हो रही थी मेरी गांड़। जो भी हो, असह्य पीड़ा से मैं छटपटा उठी थी। उसका विशाल लंड मेरी गांड़ के रास्ते को चीरता हुआ अंदर जा कर मेरी आंत को फाड़ डालने को आतुर था।

“छोड़ो, आ्आ्आ्आह्ह्ह्ह, फाड़ दिया मादरचोद। निका्आ्आ्आ्आ्आल साले कुत्ते, कमीने।” बिलबिलाती हुई चीखी मैं।

“अब चिचिया काहे रही हो मैडम, जो होना था हो गया। किला जीत लिया हमने। अब रोने और कुतिया जईसे किकियाने का कौनो फायदा नहीं। हमको जो चाहिए था मिल गया। ओह इतना मस्त, चिकना, गोल गोल टाईट गांड़ बड़ा तकदीर से मिला है, अब बिना चोदे छोड़ें कईसे, बताओ तो भला। अब तो चालू होगा असली मज़ा। देख साली चोदनी की, अब हमारे लौड़े का जलवा देख।” कहते कहते उस जल्लाद ने सर्र से अपना लंड बाहर किया और मुझ लंडखोर की गांड़ में भच्चाक से पुनः घुसेड़ दिया। उफ़ उफ़ उन आरंभिक पलों की कभी न भूल पाने वाली अवर्णनीय पीड़ा को कैसे मैंने पिया, यह मैं ही जानती हूं।

“छोड़ो छोड़ो, ओह मैं मर जाऊंगी, आह।” मैं बेबसी से विनय करने लगी।

“मरने देंगे तब न। अभी तो शुरूवे हुआ है, अभिए से मरने की बात काहे कर रही हो। ये ल्ल्ल्ले्ए्ए्ए्… ।” फिर एक हौलनाक धक्का लगा।

“आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह,” मेरी आह निकल पड़ी। लेकिन अब शायद मेरी गांड़ का सारा कस बल धीरे धीरे कम हो रहा था। फिर धक्का, फिर धक्का, फिर धक्का, फिर धक्के पे धक्का, धक्के पे धक्का, फिर तो धक्कों की झड़ी लग गयी। धकाधक धकाधक ठाप पे ठाप, और मेरा दर्द न जाने कहां छू मंतर हो गया। अब मुझे मजा आने लगा था, अब मैंने अपनी ओर से विरोध करने का सारा उपक्रम रोक कर सहयोग करने में ही अपनी भलाई देख ली थी, क्योंकि अब मुझे आनंद आने लगा था। मेरी हालत से वह अनभिज्ञ नहीं था। वह अपनी सफलता पर बड़ा खुश हो रहा था और आनंदपूर्वक मेरी गांड़ का बाजा बजाने में तल्लीन हो गया।

“अब? अब मजा मिल रहा है ना मैडम? कि अब भी मेरी जा रही हो।” चुदाई की धक्कमपेल में मशगूल कमीना बोला।

“आह ओह उफ़, अब पूछ कर क्या फायदा। गांड़ तो फट ही गयी। अब चोद मां के लौड़े, आह आह, ओह भगवान, मज्ज्ज्ज्जा्आ्आ्आ्आ आ रहा है रज्ज्ज्ज्जा्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह।” चुदाई की मस्ती में डूबी मैं बोली।

“वाह, बहुत खूब, अब आवेगा मजा।” कहते कहते वह दुगुने उत्साह के साथ जुट गया मेरी गांड़ का फालूदा बनाने। उफ़, जोश में आकर वह मुझे दिए सोफे से उठ गया और दुगुने रफ्तार से मेरी गांड़ की कुटाई करने लगा और मैं, मेरी हालत तो पूछिए ही मत। कमर से ऊपर का हिस्सा हवा में तैर रहा था। असहाय अवस्था में मैं हवा में ही हाथ लहरा रही थी। कुछ पलों बाद मेरी दोनों टांगें भी फर्श से ऊपर उठ कर हवा में थीं। मेरी कमर को सख्ती से उसनें थाम रखा था। चुदाई के नशे में उसे होश ही नहीं था कि मेरी स्थति क्या थी। धुआंधार धक्कों के बीच ही अति उत्साह में उसनें मुझे कुछ ज्यादा ही झुका दिया, परिणाम स्वरूप मैं दोनों हाथों को फर्श पर रखने में समर्थ हो पाई और अब मैं कुतिया थी और वह कुत्ता बना मेरी गांड़ में अपना मूसल भकाभक पेले जा रहा था। उसके विशाल अंकोश के थपेड़े मेरी चूत पर पड़ रहे थे जो मुझे और उत्तेजित किए जा रहे थे। तभी मैं असंतुलित हो गयी और मेरा सर फर्श पर टकराते टकराते बचा, मगर उसे क्या पड़ी थी, वह तो मेरी गांड़ कुटाई में तल्लीन था, दनादन दनादन, फचाफच, भच्चाभच्च। इसी बीच उसे मेरी स्थति का आभास हुआ और उसनें मुझे गुड़िया की तरह उठा कर सोफे पर पटक दिया। मेरा सर सीधे गद्देदार सोफे पर धप्प से टकराया। मेरे चेहरे को बचा लिया सोफे के गद्दे नें। अब मैं अपना सर सोफे पर रख कर चुद रही थी। करीब पच्चीस तीस मिनट तक मैं उस कुत्ते की कुतिया बनी, नुचती पिसती, चुदाई का आनंद लेती रही। उफ़ इतनी जबरदस्त कुटाई मेरी गांड़ की आजतक नहीं हुई थी।

अंततः, उस अंतहीन सी लगने वाली चुदाई के चरमोत्कर्ष में पहुंच ही गया वह चुदक्कड़ और जैसे मीलों दौड़ कर आया हो वैसे ही हांफता कांपता, छर्र छर्र अपने वीर्य के बाढ़ से मेरी गांड़ को सराबोर कर दिया। तभी मैं भी मस्ती के समुंदर में डूबी स्खलन के कगार पर पहुंच गयी और कंपकंपाने लगी, और लो, हो गया मेरा काम। झड़ने लगी और क्या झड़ी मैं उफ़। स्खलन के वे पल यादगार थे। उफ्फ, इतनी जोर से भींचा था मेरी चूचियों को कमीने नें, कि मेरी आह्ह्ह निकल पड़ी, लेकिन उस पीड़ा पर मेरा वह हहाकारी स्खलन भारी पड़ा।

“हुम्म्म्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह, गय्य्य्य्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह मैं गया ये साली्ई्ई्ई्ई रंडी्ई्ई्ई्ई्ई।” कहते कहते अपना वीर्य छोड़ रहा था। आनंद के उन यादगार पलों का कहना ही क्या था। इधर मैं झड़ी, उधर वह झड़ा। उसके वीर्य का कतरा कतरा अपनी गांड़ में जज्ब करने की असफल कोशिश करती रही, लेकिन वीर्य के उस बाढ़ को रोक पाना भला चुद चुद कर बेहाल हो चुकी गांड़ के वश में कहां थी, वह तो मेरी जांघों से नीचे तक बह चला था। जब चोद निचोड़ कर उसनें मुझे छोड़ा, धप्प से फिर मैं सोफे पर पड़ गयी। पसीने से लतपत, थक कर निढाल हो चुकी थी मैं।

“आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह, रज्ज्ज्ज्जा्आ्आ्आ, बड़ा मजा दिया रे मेरी गांड़ के रसिया।” अलसायी सी मेरे मुंह से निकला।

“हम कह रहे थे पहिले से और तू थी कि ड्रामा पे ड्रामा किये जा रही थी। आया न मजा?” वह मुस्करा कर बोला।

“हां जी हां, तुम्हारे लंड की दीवानी हो गयी मैं, बाप रे बाप, क्या लंड है! इतना बड़ा लंड! लंड तो लंड, चुदाई तो गजब मेरे लौड़े रज्ज्जा्आ्आ्आ।” अपनी अस्त व्यस्त हालत से बेखबर मैं बोली। मेरे तो रोम रोम के तार बज रहे थे।

“बढ़िया, बढ़िया, मेरे लंड के दम का हमें पता था। वैसे तेरी गांड़ का भी जवाब नहीं। अईसा मजेदार गांड़ हमने जिंदगी में पहली बार चोदा। अब क्या बतावें, सच में बड़ा मजा आया। अब तो जब मौका मिलेगा, हम दौड़े चले आवेंगे तुझे चोदने। जितना चोदो साला मन ही नहीं भरता। अबहिए देख लो, फिर चोदने का मन कर रहा है।” वह कमीना बोला।

“नहीं, फिर से अभी नहीं प्लीज। अभी का हो गया। मैं कहां भागी जा रही हूं मेरे रसिया। देख नहीं रहे मेरे शरीर की हालत? एक ही दिन में मार ही डालोगे क्या? कैसा निचोड़ के रख दिया। अभी तो बख्श ही दो।” मैं घबरा उठी, उसके फिर से चोदने की बात सुनकर।

“ठीक है ठीक है, आएंगे, फिर आएंगे। अब्भी तो हम जाते हैं। असल में बात क्या है ना, तुम्हारी गांड़ का मजा मिल गया है ई सुसरा हमारे लौड़े को, हम न भी चाहें तो हमारा लौड़ा हमको खींच लाएगा।” अपनी गंदी जुबान से होंठ चाटते हुए बोला। फिर फटाफट अपने कपड़े पहन कर वहां से रुखसत हुआ। किसी तरह अपने नुचे चुदे शरीर को संभाल कर उठी और फ्रेश होने बाथरूम में जा घुसी।

चलो बला टली फिलहाल के लिए। तो क्या सच में वह बला था? शायद नहीं। पीड़ामय किंतु संतुष्टि, पूर्ण संतुष्टि, भरपूर आनंद प्रदान किया था उसने। अगर फिर आएगा तो आए, अच्छा ही है, मेरे चाहने वालों में एक नाम और जुड़ गया था। अच्छा रविवार रहा, आज का दिन यादगार बना गया था वह। मैंने बाथरूम से निकल कर घड़ी देखा, ग्यारह बज रहे थे। यानी कि सवेरे आठ बजे से ग्यारह कैसे बज गया पता ही नहीं चला। अब हरिया और बाकी औरतखोरों का इंतजार था कि कब पहुंचें और खाने की व्यवस्था हो। खा पी कर एक बढ़िया नींद की जरूरत थी मुझे ताकि मेरे क्लांत शरीर को आराम मिल सके।

This story कामिनी की कामुक गाथा (भाग 83) appeared first on new sex story dot com